Saturday, November 18, 2017

ये मत कहना कोई कमतर होता है - सलीम रज़ा रीवा

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ये मत कहना कोई कमतर होता है 
दुनिया  में  इन्सान  बराबर होता है 
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टूटा-फूटा  गिरा-पड़ा कुछ तंग सही 
अपना घर तो अपना ही घर होता है
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ताल  में  पंछी पनघट गागर चौपालें 
कितना सुन्दर गाँव का मंज़र होता है
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काम नहीं  है तीरों का  तलवारों का
प्यार तो एटम बम से बेहतर होता है
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पाकीज़ा  जज़्बात है जिसके सीने में 
उसका चेहरा रू-ए-मुनव्वर होता है  
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ज़ाहिद का तो काम नहीं मयख़ाने में  
मयख़ाना तो  रिंदों  का घर  होता है 
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जो तारीकी  में  भी  रस्ता दिखलाए 
वो  ही हमदम वो ही रहबर होता है
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अपना बनकर जो भी धोका देता है
बुज़दिल होता  है वो कायर होता है
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कैद करो न  इसको पिंजरों में कोई 
अम्न  का पंछी रज़ा कबूतर होता है

Thursday, November 16, 2017

New हार  कर रुकना नहीं ग़र तेरी मंज़िल दूर है 

चांद  का टुकड़ा है या कोई  परी या हूर है
उसके चहरे पे चमकता हर घड़ी इक नूर है

हुस्न पर तो नाज़ उसको ख़ूब था पहले से ही
आइने को देख कर वो और भी मग़रूर है

हार  कर रुकना नहीं ग़र तेरी मंज़िल दूर है          
ठोकरें  खाकर सम्हलना वक़्त का दस्तूर है

हौसले  के  सामने तक़दीर  भी  झुक जायेगी
तू बदल सकता है क़िस्मत किसलिए मजबूर है

आदमी की चाह हो तो खिलते है पत्थर में फूल
कौन सी मंज़िल भला इस आदमी  से दूर  है

ख़ाक  का पुतला  इंसाँ  ख़ाक में मिल जाएगा
कैसी दौलत कैसी शोहरत क्यों भला मग़रूर है

वक़्त से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता कभी
वक़्त  के  हाथो  यहाँ  हर  एक शय  मजबूर  है

उसकि मर्ज़ी के बिना हिलता नहीं पत्ता कोई
उसका हर एक फैसला हमको रज़ा मंज़ूर है

Friday, November 10, 2017

नाराज़गी है कैसी भला ज़िन्दगी के साथ - SALIM RAZA REWA

जीने की आरज़ू तो है सब को खुशी के साथ
ग़म भी लगे हुए हैं मगर ज़िन्दगी के  साथ
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नाज़-ओ-अदा के साथ कभी बे-रुख़ी के साथ
दिल में उतर  गया वो बड़ी सादगी के साथ  
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आएगा मुश्क़िलों में भी जीने का फ़न तुझे
कूछ दिन गुज़ार ले तू मेरी ज़िदगी के साथ
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ख़ून-ए- जिगर निचोड़ के रखते हैं शेर में
यूँ ही नहीं है  प्यार हमें  शायरी के साथ 
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अच्छी तरह से आपने जाना नहीं जिसे
यारी कभी न कीजिये उस अजनबी के साथ
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मुश्किल में कैसे जीते हैं यह उनसे पूछिये
गुज़रा है जिनका वक़्त सदा मुफ़लिसी के साथ
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उसपर न ऐतबार  कभी कीजिए  " रज़ा 
धोका किया है जिसने हमेशा सभी के साथ

221 2121 1221 212
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़

Saturday, November 4, 2017

बातों ही बातों में उनसे प्यार हुआ- सलीम रज़ा रीवा

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बातों ही बातों में उनसे प्यार  हुआ.
ये मत पूछो कैसे कब इक़रार हुआ
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जब से आँखें उनसे मेरी चार हुईं.
तब से मेरा जीना भी दुश्वार हुआ
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वो शरमाएँ जैसे  शरमाएँ कलियाँ.
रफ्ता रफ्ता चाहत का इज़हार हुआ
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दिल की बातें वो  ऐसे पढ़  लेता है.
दिल हुआ जैसे कोईअख़बार हुआ
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उनसे  ही खुशियाँ है मेरे आंगन में.
उनसे ही रौशन मेरा घर बार हुआ
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आँखों में बस उनका चेहरा दिखता है.
शोख़ हसीना का जब से दीदार हुआ
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Gazal by salimrazarewa

A 20 GAZLEN SALEEM RAZA REWA

  🅰️ 20 ग़ज़लें  01 मुज्तस मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़ मस्कन मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन  1212 1122 1212 22 ——— ——— —— —— ———- हर एक शय से ज़ि...