चांद का टुकड़ा है या कोई परी या हूर है
उसके चहरे पे चमकता हर घड़ी इक नूर है
हुस्न पर तो नाज़ उसको ख़ूब था पहले से ही
आइने को देख कर वो और भी मग़रूर है
हार कर रुकना नहीं ग़र तेरी मंज़िल दूर है
ठोकरें खाकर सम्हलना वक़्त का दस्तूर है
हौसले के सामने तक़दीर भी झुक जायेगी
तू बदल सकता है क़िस्मत किसलिए मजबूर है
आदमी की चाह हो तो खिलते है पत्थर में फूल
कौन सी मंज़िल भला इस आदमी से दूर है
ख़ाक का पुतला इंसाँ ख़ाक में मिल जाएगा
कैसी दौलत कैसी शोहरत क्यों भला मग़रूर है
वक़्त से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता कभी
वक़्त के हाथो यहाँ हर एक शय मजबूर है
उसकि मर्ज़ी के बिना हिलता नहीं पत्ता कोई
उसका हर एक फैसला हमको रज़ा मंज़ूर है
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