बूढ़ी आँखों में भी कितने ख़्वाब सजाए बैठे हैं
जाने कब होंगे पूरे, उम्मीद लगाए बैठे हैं
दिल की बात ज़ुबाँ तक आए ये ना मुमकिन लगता है
ख़ामोशी में जाने कितने राज़ छुपाए बैठे हैं
किसको दिल का दर्द बताएँ किसको हाल सुनाएँ हम
ख़ुद ही अपनी मजबूरी का बोझ उठाये बैठे हैं
वो भी बदल जाएँगे इक दिन ऐसी हमें उम्मीद न थी
जिनके प्यार में हम अपना घरबार लुटाए बैठे हैं
कौन है अपना कौन पराया कैसे ‘रज़ा’ पहचानोगे
चेहरों पर तो फ़र्ज़ी चेहरे लोग लगाए बैठे हैं