सलीम 'रज़ा' रीवा
चौदहवीं
शब
को
सरे बाम वो जब आता है
माह-ए-कामिल भी उसे
देख के शरमाता है
मैं उसे चाँद कहूँ, फूल
कहूँ, या
शबनम
उसका ही चेहरा हर एक शय में नज़र
आता है
जब तसव्वुर में तेरा चेहरा
बना
लेता हूँ
तब कहीं जाके मेरे दिल को सुकूं
आता है
रक़्स करती हैं बहारें भी तेरे
आने से
हुस्न मौसम का ज़रा और निखर जाता
है
कितने
अल्फाज़ मचलते हैं संवरने के लिए
जब ख़्यालों में कोई
शेर
उभर आता है
मैं मनाऊँ
तो भला
कैसे
मनाऊँ उसको
मेरा महबूब तो बच्चो सा मचल जाता
है
जब उठा लेती है माँ हाथ दुआओं के
लिए
रास्ते से मेरे तूफ़ान भी हट जाता
है
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सलीम 'रज़ा'
चौदहवीं शब @ चौदहवीं की रात
सरे बाम @छत के ऊपर
माह-ए-कामिल @ पूरा चाँद
हर एक शय @ हर एक चीज़
तसव्वुर @ ख़्याल
रक़्स करती हैं बहारें @ख़ुशी से बहारें नाच रही हैं