बिन तेरे रात गुज़र जाए बड़ी मुश्किल है
और फिर याद भी न आए बड़ी मुश्किल है
खोल कर बैठे हैं छत पर वो हसीं ज़ुल्फ़ों को
ऐसे में धूप निकल आए बड़ी मुश्किल है
मेरे महबूब का हो ज़िक्र अगर महफ़िल में
और फिर आँख न भर आए बड़ी मुश्किल है
वो हंसीं वक़्त जो मिल करके गुज़ारा था कभी
फिर वही लौट के आ जाए बड़ी मुश्किल है
वो सदाक़त वो सख़ावत वो मोहब्बत लेकर
फिर कोई आप सा आ जाए बड़ी मुश्किल है
_____________________________________
सलीम रज़ा रीवा