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Friday, July 18, 2025

A 101 SALIM RAZA REWA

ख़यालों का परिंदा 🦅 

101

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‘इलाज-ए-‘इश्क़ मुसलसल जो कर गए होते 

दिलों के ज़ख़्म यक़ीनन ही भर गए होते


तुम्हारे ‘इश्क़ ने हमको बचा लिया वर्ना

ग़म-ए-हयात से अब तक तो मर गए होते


इसी ख़याल ने पागल बना के रक्खा है 

तुम्हारे साथ जो रहते, सँवर गए होते  


वो मेरे पास ठहर जाते चंद लम्हों को 

मेरे ग़मों के भी चेहरे उतर गए होते


तुम्हारे प्यार का मरहम जो मिल गया होता

तो मेरे दिल के सभी ज़ख़्म भर गए होते


तुम्हारी याद की बारिश जो हो गई होती

तो सूखे अश्क भी, आँखों से झर गए होते


जो खाई ठोकरें, तो दिल ने ये कहा मुझसे

“रज़ा” भटकने से बेहतर था, घर गए होते

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‘इलाज-ए-‘इश्क— प्रेम की दवा, मुसलसल-लगातार, 

ग़म-ए-हयात-ज़िंदगी के ग़म, चंद लम्हों-कुछ पल, अश्क-आँसू, 

10-03-25

————1212/1122/1212/22———-


102

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कोई मौसम हो ये रंगीन बना देता है 

‘इश्क़ जब हद से गुज़रता है मज़ा देता है


जब भी होता है मेरे साथ में दिलबर मेरा 

मुश्किलों को मेरी आसान बना देता है


उम्र भर मुश्किलें सहता है वो बच्चों के लिए

अपनी सब ख़्वाहिशें मिट्टी में दबा देता है


हर ख़ुशी छोड़ के परदेस में अपनों के लिए

क़तरा-क़तरा वो पसीने का बहा देता है


‘इश्क़ का जाम ‘रज़ा’ पी के बहक जाओगे

‘इश्क़ ज़ाहिद को भी दीवाना बना देता है


20-03-25 

2122/1122/1122/22 

ख़्वाहिशें-इच्छाएँ, क़तरा-बूँद, ज़ाहिद-गुनाह से दूर रहने वाला,

..……………ए शेर………….

मेरे बदन पे ख़ुशबू की चादर वो डाल कर 

अपनी मोहब्बतों में गिरफ़्तार कर लिए

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103 

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ग़मों की गर्द ने ढक ली है हर ख़ुशी मेरी

सिसक-सिसक के गुज़रती है ज़िंदगी मेरी


ग़मों के शोर से दहला है ऐसा दिल मेरा 

डरी-डरी सी रहा करती है ख़ुशी मेरी 


मैं मुस्कुरा भी दिया, टूटकर बिखर भी गया

उसे पता ही नहीं है , ये सादगी मेरी


मैं अपने ग़म को छुपा लूँगा इस हुनर के साथ

नज़र न आएगी दुनिया को बेबसी मेरी


बहार आई तो शाख़ों से फूल झड़ने लगे

है मुझको डर मुझे खाए न ताज़गी मेरी 


जो अश्क बन के छलकती रही निगाहों से

उसी को लोग समझते रहे ख़ुशी मेरी


‘रज़ा’ यही तो मुक़द्दर की मेह्रबानी है

हुई न ख़त्म ये तकलीफ़-ए-आशिक़ी मेरी


1212/1122/1212/22

—————30/03/25———-

गर्द-धूल।तकलीफ़-ए-आशिक़ी- मोहब्बत का ग़म।

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104

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हुस्न जब ज़ेवर-ए-उल्फ़त से सँवर जाता है

नूर बनकर वो दिल-ओ-जाँ में उतर जाता है 


दिल किसी और के पीछे नहीं चलता हरगिज़ 

दिल उधर जाता है, महबूब जिधर जाता है 


चोट खाता है मोहब्बत में, किसी का जब दिल

‘इश्क़ का भूत तो दो दिन में  उतर जाता है


आज भी उसको मोहब्बत है यक़ीनन मुझसे

जब भी मिलता है, वो पल भर को ठहर जाता है


वो थिरकता है लहू बनके मेरी नस-नस में 

और फिर मेरे ख़यालों में बिखर जाता है


लब पे हल्का सा तबस्सुम भी अगर आ जाए

हुस्न फिर उसका बहारों सा निखर जाता है


ऐसे इंसाँ पे, ‘रज़ा’ कैसे भरोसा कर लें

करके वादा जो हमेशा ही मुकर जाता है


2122/1122/1122/22

 ——————05/04/25—————-

ज़ेवर-ए-उल्फ़त,-मोहब्बत का गहना, तबस्सुम-मुस्कुराहट,

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105

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उसकी आँखों में अजब जादू नज़र आता है

देखने वाला हर इक शख़्स ठहर जाता है


घर के उलझे हुए रिश्तों को वो सुलझा न सका 

और वो मस'अले बाज़ार के सुलझाता है 


जब वो हँसता है तो, खिल जाते हैं ग़ुंचे दिल के

अपनी बातों से दिल-ओ-जान को महकाता है


दूर हो जाती है दिनभर की थकन पल भर में

जब मेरा लख़्त-ए-जिगर मुझसे लिपट जाता है


टूट जाता है हर इक रिश्ते का ताना-बाना 

तंग-हाली में कोई काम नहीं आता है


जब तसव्वुर में तेरा अक्स बना लेता हूँ

तब कहीं जाके मेरे दिल को सुकूँ आता है


ख़ुशबू-ए-‘इश्क़ है, दामन में यक़ीनन उसके 

ज़िक्र उसका मेरी हर साँस को महकाता है


उनकी तस्वीर बसी, जब से निगाहों में ‘रज़ा’

उनका ही चेहरा, हर इक शै में नज़र आता है

2122/1122/1122/22

 ———————05/04/25——————-

मसअला-मामला जिसका हल ढूँढा जाए, पूछी हुई बात, सवाल। लख़्त-ए-जिगर,-दिल का टुकड़ा, बेटा-बेटी । ख़ुशबू-ए-इश्क़,- मोहब्बत की ख़ुशबू ।

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106

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अपने हसीन रुख़ से हटा कर नक़ाब को

शर्मिंदा कर रहा है कोई माहताब को


जब भी पलट के देखा है दिल की किताब को

रोते हुए ही पाया है सूखे गुलाब को


लब पे सुकूत, आँख में शोले, बदन में नूर

रब ने हसीं बनाया मेरे माहताब को


उसकी निगाह-ए-नाज़ ने मदहोश कर दिया 

रब की क़सम छुआ नहीं मैंने शराब को


दिल चाहता है उसको दुआ से नवाज़ दूँ

जब देखता हूँ बाग़ में खिलते गुलाब को


शुक्र-ए-ख़ुदा किया ही नहीं जिसने उम्र भर 

जाहिल नहीं तो क्या कहूँ ऐसे नवाब को


इन्सान बन गया है ‘रज़ा’ आदमी से वो

दिल से पढ़ा है जिसने ख़ुदा की किताब को


10/04/25

——————221/2121/1221/212———-

माहताब-चाँद, सुकूत-ख़ामोशी, मौन, नूर-चमक, निगाह-ए-नाज़-प्रेम भरी दृष्टी, जाहिल-ना समझ, उद्दंड, 


107

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हकीम-ए-शहर ने बेहतर दवा की 

ज़रूरत है उसे अब तो दु’आ की


हर-इक वा’दे को तोड़ा है उसी ने

क़सम खाता था जो, पल-पल वफ़ा की


मरीज़-ए-‘इश्क़, पागल हो रहा है

ज़रूरत है, मोहब्बत की,दवा की


बसा कर आँखों में तस्वीर-ए-जानाँ 

‘इबादत कर रहा हूँ मैं ख़ुदा की


वो लहजा, जो तसल्ली दे रहा था

उसी से आ रही थी बू जफ़ा की 


वो चेहरा चाँद सा मंडरा रहा था

ग़िलाफ़ें ओढ़ कर काली घटा की


मैं लम्हों की गिरह को खोलता हूँ

मगर आहट नहीं मिलती वफ़ा की


दर-ओ-दीवार मुरझाए हुए हैं

कमी खलने लगी, उस गुल-अदा की 


ज़माने की ख़ुशी हासिल थी लेकिन

कमी थी बस, निगाह-ए-आशना की


बड़े हमदर्द बनते फिर रहे हो

मगर सुध-बुध न ली अब तक ‘रज़ा’ की

——— 1222/1222/122 ——


कितने अलफ़ाज़ मचलते हैं सँवरने के लिए

जब ख़यालों में कोई  शे’र उभर आता है  


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हकीम-ए-शहर,-शहर का डॉक्टर, अहद-ए-वफ़ा,-वादे को पूरा करना। मरीज़-ए-इश्क़, प्रेम रोगी ,दर-ओ -दीवार,-दरवाज़ा और दीवार। निगाह-ए-आशना,-महबूब की निगाह । गुल-अदा ,-फूल की तरह। जफ़ा- सितम । ग़िलाफ़- कपड़ा, चादर ।

15/04/25

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08
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हौसला जिसका मर नहीं सकता 

मुश्किलों से वो डर नहीं सकता


आसमाँ पे ग़ुरूर है उसका 

इतनी जल्दी उतर नहीं सकता 


लाख क़समें ख़ुदा की वो खाए 

बे वफ़ा है, सुधर नहीं सकता 


लोग कहते हैं ज़ख़्म गहरा है 

मुद्दतों तक ये भर नहीं सकता


उनको आदत सही डराने की 

मेरी फ़ितरत, मैं डर नहीं सकता 


जब तलक ख़ुद ख़ुदा नहीं चाहे 

मैं बलाओं से मर नहीं सकता

 

जिसको ‘इल्म-ओ-श'ऊर हासिल हो 

वो सवालों से डर नहीं सकता 


प्यार जिनसे नहीं किया है ‘रज़ा’

उनसे नफ़रत भी कर नहीं सकता

2122/1212/22

20/04/25

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ग़ुरूर -घमंड, फ़ितरत-स्वभाव,आदत, 

इल्म-ओ-श'ऊर- बुद्ध-विवेक, 

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109

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वो सुर्ख़ धूप में , सहरा में आ के बैठा है

बदन को ओढ़ के छाया बना के बैठा है


जो बज़्म-ए-नाज़ में धूनी रमा के बैठा है 

वो मेरी ख़ुशियों की चादर बिछा के बैठा है 


जिसे समझते हो तन्हा फ़क़त तुम्हारा है

न जाने कितनों से टाँके भिड़ा के बैठा है


भरम बनाए रखे है, वो छाँव लिख-लिख कर

सुनहरी धूप को पागल बना के बैठा है


मैं अपने जिस्म से बाहर निकल के बैठा हूँ

वो अपने जिस्म को पिंजरा बना के बैठा है


नमाज़-ए-इश्क़ मेरे साथ-साथ पढ़ने को

वो मेरे दिल में मुसल्ला बिछा के बैठा है


तमाम ख़ुशियाँ, मेरी ज़िंदगी से चाट गया

वो मेरे जिस्म को मुर्दा बना के बैठा है 


मेरे परों को जकड़ रखा है वफ़ाओं से 

वो मेरे ख़्वाब पे क़ब्ज़ा जमा के बैठा है


पका रहा था वो  मुझको कई सवालों से 

मेरे जवाब से कोने में जा के बैठ गया 


रज़ा’ की नीदें भी अब पूछती हैं उसका हाल

जो उसको ख़्वाब में दिन-भर जगा के बैठा है


25/04/25

—-—- 12121/1221/212/22——--


मुझकॊ मेरे ख़यालों के पर काटने पड़े

उसकी उड़ान थी मेरी औक़ात से सिवा


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सुर्ख़ धूप- तपती धूप, सहरा-रेगिस्तान, फ़क़त, सिर्फ़, बज़्म-ए-नाज़, प्रेमिका की गोष्ठी,


110

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मुझको तिजारतों में ख़सारा नहीं हुआ

ये और बात है कि गुज़ारा नहीं हुआ


ये सोचकर मैं ख़ुश हूँ, की ग़ुरबत में भी मुझे 

लालच दग़ा-फ़रेब गवारा नहीं हुआ 


जिसके लिए खपा चुके हम सारी ज़िंदगी 

वो शाम-ए-ज़िंदगी में हमारा नहीं हुआ 


उसको तो बस तलाश थी इक मालदार की 

शायद इसीलिए वो हमारा नहीं हुआ 


उसकी नज़र जो पड़ गई महबूब पे मेरे 

मेरी ख़ुशी में ख़ुश वो दोबारा नहीं हुआ 


ख़्वाबों की इक क़तार थी आँखों के सामने,

लेकिन कोई भी शख़्स हमारा नहीं हुआ।


सिस्टम वो मेरे दिल का किया क्रैश यूँ ‘रज़ा’

स्टार्ट दिल का पीसी दोबारा नहीं हुआ


30/04/25

तिजारत-व्यापार, ख़सारा-नुक़सान, हानि, ग़ुरबत-ग़रीबी, शाम-ए-ज़िंदगी- ज़िन्दगी के आख़िरी पल, दग़ा-फ़रेब-छल, कपट, 

—-—221/2121/1221/212——-

मेरे अपने कर रहे हैं, साथ मेरे छल बहुत salim raza reaa

मेरे  अपने  कर  रहे  हैं  साथ  मेरे  छल  बहुत ये घुटन अब खाए जाती है मुझे हर पल बहुत बज रही है कानों में अब तक तेरी पायल बहुत तेरी  यादें  क...