उस्तादे-मुहतरम असलम मजीद साहब-सलीम रज़ा रीवा मज़मून
सलीम रज़ा रीवा मज़मून
“सलीम रज़ा रीवा”
“जुनूनी कैफ़ियत का होशमंद शा’इर”
“ग़ज़ल” अपने तीखे नैन-नक़्श, तीखे तेवर, सजीले बांकपन, आमिराना व,ज़ा'दारी, ‘आमियाना ज़िम्मेदारी, सिपाहियाना अकड़, ख़ानदानी दिलेरी, जज़्बा-ए-ख़ुद्दारी, मो’सिकाना अदा, हुस्न, नाज़ो-अंदाज़, शोख़ी ओ शरारत के साथ-साथ — अपने ज़िद्दीपन, ज़ेहनी संजीदगी और अपने मजाज़ी वक़ार की वजह से हमेशा शाइक़ीने अदब में अपनी मुनफ़रिद पहचान रखती है।
फ़िक्री और श'ऊरी इंक़लाबों की आईनादार इस सिन्फ़ ने कभी अपनी तौक़ीर को कम नहीं होने दिया।
"ग़ज़ल का अब्र दिलों के समुन्दर से हालात की सोज़िश की वजह से भाप बनकर उठता है", और ज़ुल्मो-सितम के पहाड़ों, मेहरूमियों की चोटियों, मायूसियों की ढलानों पर बाराने-उम्मीद या’नी आशाओं की बारिश बनकर बरसता है।
त़रह़-त़रह़ के हालात और नशेबो-फ़राज़ से गुज़रता हुआ ग़ज़ल का दरिया अपने साथ बहुत कुछ बहाकर लाता है, लेकिन जो क़ाबिले-ज़िक्र होता है, उसे ज़ेहनों में महफ़ूज़ कर देता है — और जो इंसान और इंसानियत के काम का नहीं होता है, उसे गुमनामी के समुन्दर में थोड़े से शोर और बहुत सी ख़ामोशी के साथ चैन की नींद सुला देता है।
ग़ज़ल का सफ़र कभी न ख़त्म होने वाला जज़्बाती, तहज़ीबी सफ़र है।
ये हमेशा जारी रहेगा।
सदियों पहले ग़ज़ल अरबी ज़ुबान में तवल्लुद हुई, या'नी इसका जन्म हुआ। ग़ैर-मुरद्दफ़, अवज़ान के लिबास में मलबूस ग़ज़ल, अरब के रेगिस्तानों से चलकर फ़ारस के गुलिस्तानों में पहुँची।
ज़ुबाने-फ़ारसी ने इसे ज़ेवरे-रदीफ़ से आरास्ता किया। रदीफ़ ने इसके हुस्न में चार चाँद लगा दिए।
अब ग़ज़ल की चमक दूर-दूर तक फैलने लगी। जहाँ-जहाँ भी 'अरबी, फ़ारसी ज़ुबान वाले पहुँचे — ग़ज़ल उनकी हमसफ़र रही।
जब ग़ज़ल सरज़मीने-हिन्दोस्तान पहुँची, तो यहाँ की मक़ामी ज़ुबानों के जानने वालों ने इसका दिल खोलकर इस्तक़बाल किया।
ग़ज़ल की मुहब्बत में इस सरज़मीन ने एक नई ज़ुबान को वजूद अता किया, जिसे हम उर्दू के नाम से जानते हैं।
इसे हिन्दवी और रेख़्ता भी कहा जाता है।
उर्दू ने इस ज़मीन पर तरक़्क़ी का दौर भी देखा है और परेशानी का दौर भी देख रही है।
ग़ज़ल की सख़्तजानी का अंदाज़ा इसकी मक़बूलियत से लगाया जा सकता है।
ग़ज़ल आज भी आबरू-ए-शे’रो-सुख़न है, कल भी थी, और इंशा अल्लाह कल भी रहेगी।
ग़ज़ल से मुहब्बत करने वाले इसे भाषा की तराज़ू पर नहीं तौलते।
ग़ज़ल को हमेशा ग़ज़ल के मख़सूस मीज़ान या'नी फ़ॉर्मेट पे तौला जाता है।
ग़ज़ल किसी भी ज़ुबान में लिखी जाए, उसकी सख़्तियाँ और रियायतें सबके लिए एक जैसी होती हैं।
जिस भाषा में ग़ज़ल कही जा रही है, उस भाषा के व्याकरण या'नी ग्रामर का ख़याल रखना लेखक की ख़ास ज़िम्मेदारी होती है।
आज भारत की हर ज़ुबान में ग़ज़ल कही जा रही है — और हर बोली में ग़ज़ल कहने की कोशिश की जा रही है।
भारत के सूबे मध्यप्रदेश में एक ऐतिहासिक ज़िला रीवा है, ये शह्र अपने सफ़ेद शेरों के लिए सारी दुनिया में जाना जाता है।
इस ज़िले के आसपास एक बहुत मीठी बोली, “बघेली” बोली जाती है। इस बोली के प्रभाव क्षेत्र को बघेलखंड कहा जाता है।
बघेली, हिन्दी, उर्दू और आधुनिक समय की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा इंग्लिश यहाँ पढ़ी-लिखी जाती है।
इसी भाषाई संसार में हमारे बिरादरे ’अज़ीज़ सलीम रज़ा सा. का जन्म हुआ।
सलीम रज़ा सा. के घर में उर्दू बोली जाती है, बस्ती मुहल्ले में बघेली बोली जाती है, स्कूलों में ’आम तौर से हिन्दी और इग्लिश पढ़ाई जाती है।
उर्दू ज़बान वालों की बेहिसी और हुकूमते-वक़्त की बे तवज्जोही के सबब उर्दू बहुत मुश्किल दौर से गुज़र रही है, अगर ये दोनों ज़िम्मेदार तबके ईमानदारी से चाहे तो हर स्कूल में उर्दू ज़ुबान को तीसरी भाषा के तौर पर बा आसानी पढ़ाया जा सकता है
अलमिया!!!!!
" उर्दू में ग़ज़ल सब लिखना चाहते हैं, उर्दू के इनाम भी पाना चाहते हैं लेकिन अपने बच्चों को उर्दू पढ़ाने की ज़िम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं हैं"
अफ़सोस, सद अफ़सोस!
सलीम रज़ा के इर्दगिर्द जो भाषाई माहौल है
सलीम रज़ा उन ज़ुबानों में से हर किसी में अपने आप को वयक्त करने की सलाहीयत रखते हैं।
सलीम रज़ा रीवा का मजमू’आ ए कलामन “ख़यालों का परिंदा” आपके हाथ में है, आप इस काव्य संग्रह को पढ़ रहे हैं।
मैंने भी इस की हर सतर को पढ़ा है।
रीवा जैसी संगलाख़ ज़मीन पर उर्दू ज़ुबान के गुल बूटों को परवान चढ़ाना कोई आसान काम नहीं था, लेकिन उन्होंने इस काम को ब-हुस्न-ख़ूबी अंजाम दिया।
इसे कहते हैं “जहाँ चाह वहाँ राह”।
सलीम रज़ा सा. से 2024 के पहले एक-दो बार मोबाइल पर रस्मन सलाम दु’आ, ख़ैर-ख़ैरियत की गुफ़्तगू हुई थी।
इत्तेफ़ाक़ से सलीम रज़ा सा. का ट्रांसफ़र जबलपुर हो गया।
2024 के जुलाई महीने में एक त़रह़ी मुसालमे में गढ़ा, जबलपुर में इनसे प पेहली मुलाक़ात हुई।
जबलपुर में मुक़ीम होने की वजह से मुलाक़ातों का सिलसिला चल निकला।
रफ़्ता-रफ़्ता जबलपुर के अदबी ह़ल्क़े से आपका रब्त क़ाइम हुआ, हम से और हमारे शागिर्दों से इनकी ख़ूब गुफ़्तगू होने लगी।
एक दिन सलीम रज़ा सा. ने अचानक हमारे सामने अपना दिली मंशा ज़ाहिर कर दिया —
“उस्ताद आप मुझे अपनी शागिर्दगी में क़ुबूल कर लीजिए”।
सलीम सा. का जुमला सुनकर हमनें उन्हें ग़ौर से देखा, बहुत देर सोचा और हिम्मत जुटा कर कह दिया — अभी नहीं।
ऐसा हमनें इसलिए किया क्योंकि पिछले सात महीनों से सलीम सा. को क़रीब से देख रहे थे।
“एक ऐसा शख़्स जिसने गुनगुनाने की बेहतरीन सलाहीयत होने के बावजूद अपने दम पर अपनी ज़ुरूरत भर का ‘इल्मे 'मतअरूज़ जदीद ज़रायों से ख़ुद सीखा हो,”
“जो अपनी हर ग़ज़ल की बह्र का नाम, उसके अफ़ाइल और उसकी हरकात नंबरों में लिखता हो,”
“जिसका जज़्बा ए ख़ुद ऐतमादी नुक़्ता ए उरूज पर हो,”
“जो किसी की बात मानने का नहीं, मनवाने का आदी हो,”
“जो मोबाइल से मिलने वाली जानकारी को हर्फ़े आख़िर समझता हो,”
“जिसके कलाम में अश’आर की तादाद पांच या छे से ज़ियादा न हो,”
और इन सब से बड़ी बात —
“जिसे बड़े बड़ों ने ग़लतफ़हमी में मुब्तिला किया हो।”
ऐसे शख़्स के कलाम की इस्लाह करना हमारे हिसाब से आसान नहीं, बल्कि एक दुश्वार ’अमल था।
क्योंकि इस्लाह करना आसान है, साहिबे-कलाम को मुतमइन करना मुश्किल होता है।
और इत्मिनान के लिए, उस्ताज़ पर ऐतिमाद और उस्ताज़ का अदब लाज़िम है।
हमारे इदारे “बज़्म ए शबनम ओ ग़ज़नफ़र” के शराइत और उसूल सख़्त हैं और उनकी पाबंदी भी लाज़मी होती है।
हमारा अदबी सिलसिला ह़ज़रत इमाम बख़्श “नासिख़” लखनवी से मिलता है।
हमारे उस्ताज़ ए मुहतरम ख़ुल्द मकानी मुहम्मद असग़र शबनम ग़ज़नफ़री जबलपुरी साहब थे।
बहरहाल, हमारा बैठकों का, और मिलने-मिलाने का दौर जारी रहा।
कुछ दिनों तक इसरार और इन्कार के दरमियान कशमकश चलती रही, और एक दिन इसरार को कामयाबी हासिल हो गई।
सलीम रज़ा सा. को दिल से बज़्म में शामिल किया गया।
सलीम सा. की नई ग़ज़लों की इस्लाह का दौर शुरू’अ हुआ तो उन्हें अपने पुराने कलामों की कमियाँ ख़ुद नज़र आने लगीं —
जो उनके साहिबे-नज़र होने की दलील है।
नई ग़ज़लों की इस्लाह के साथ सलीम रज़ा सा. ने अपनी पुरानी ग़ज़लों की इस्लाह के लिए भी इसरार किया।
100 से ज़ियादा पुरानी ग़ज़लें!
फिर पुरानी ग़ज़लों में सलीम रज़ा सा. से नये अश्’आर केहलवाए गए, जिस ग़ज़ल में शे’रों की ता’दाद बारह, पंद्रह हो जाती — उसकी इस्लाह की जाती।
ये सिलसिला महीनों चला।
ये ज़ह्न को थका देने वाला ’अमल रहा।
इस त’अल्लुक़ से उनकी मेहनत और लगन क़ाबिले-दाद है।
हम पर क्या गुज़री ये अगर तहरीर किया जाए तो सफ़्ओं की ता’दाद दो गुना हो जाएगी।
आइये सलीम रज़ा सा. के कुछ अश’आर देखते हैं।
एक उस्ताज़ की हैसियत से अपने शागिर्द के कलाम पर तब्सिरा मुनासिब नहीं लग रहा है, लेकिन सलीम रज़ा सा. के इसरार पर करना पड़ रहा है।
ज़माने को तुमनें दिया क्या है सोचो
ज़माने पे उंगली उठाने से पहले
मैं उसकी मुह़ब्बत से रौशन हुआ हूँ
ज़माने में यूँ जगमगाने से पहले
ये अश्’आर उनके अहसासे-ज़िम्मेदारी और अहसासे-वफ़ादारी के साथ उनकी अभी तक की ज़िन्दगी के आईनादार हैं।
तुझको डाँटूँ या तुझे प्यार करूँ मैं पेहले
कौन से जज़्बे का इज़हार करूँ मैं पेहले
मैं ग़लत काम की तरग़ीब दिलाऊँ तुझको
या’नी ख़ुद को ही गुनहगार करूँ मैं पेहले
फिर तो झगड़ा कोई मुमकिन ही नहीं है प्यारे
तू अगर चाहता है वार करूँ मैं पेहले
इस ग़ज़ल का बरजस्ता मतला’ सलीम रज़ा की शा’इराना सलाहीयत की अलामत है।
दूसरा शे’र ज़ह्नी पुख़्तगी और तीसरा शे’र पुख़्ता 'अमल की निशान देही कर रहा है।
जाने कैसे हैं ये आंसू? बहते हैं तो बहने दो
भूली बिसरी बात पुरानी कहते हैं तो कहने दो
मेरे दुख को अपने सुख के साथ कहाँ ले जाओगे
इक दूजे से दूर अगर ये रहते हैं तो रहने दो
बह्रे मीर में लिखी इस ग़ज़ल के अश्’आर सलीम रज़ा की आबाई मिट्टी की नुमाइंदगी करने के साथ
उनकी दरगुज़र करने और फ़राग़ दिली की सलाहीयत को भी पेश करते हैं।
ये दुनिया ख़ूब सूरत है, ज़माना ख़ूबसूरत है
मुहब्बत की नज़र से देखने की बस ज़ुरूरत है
मुह़ब्बत से ही दुनिया का हर इक दस्तूर है ज़िन्दा
हर इक रिश्ता, हर इक नाता मुह़ब्बत की बदौलत है
मुह़ब्बत की अहमियत का इन शे’रों में बहुत ख़ूबसूरत बयान है।
अब उस ग़ज़ल के दो शे’र, जिस ग़ज़ल की इस्लाह में दो महीने की कोशिशों के बाद हम हार मानने के क़रीब पहुँच गए थे—
लब, तुम्हारी मुह़ब्बत में खो जाएंगे, बिगड़ी क़िस्मत यक़ीनन संवर जाएगी
जब, तुम्हारी मुह़ब्बत में खो जाएंगे, बिगड़ी क़िस्मत यक़ीनन संवर जाएगी
’उम्र भर दर-बदर हम भटकते रहे, तुम न थे ज़िन्दगी में तो कुछ भी न था
अब, तुम्हारी मुह़ब्बत में खो जाएंगे, बिगड़ी क़िस्मत यक़ीनन संवर जाएगी
सिर्फ़ दो हर्फ़ के एक लफ़्ज़ को क़ाफ़िया लेकर बह्रे-तवील में कलाम कहने की कोशिश भी करना कमाल है।
सानी मिसरे का दो हर्फ़ वाला सिर्फ़ एक लफ़्ज़ जो क़ाफ़िया है — और उस लफ़्ज़ से ऊले मिसरे का रब्त क़ाइम करना एक दुश्वार काम है।
इस तजरुबाती ग़ज़ल के लिए सलीम रज़ा सा. का जुनून की हद तक कोशां रहना हमें हैरान और परेशान करता रहा।
सलीम रज़ा साहब ने रदीफ़ ली थी,
“तुम्हारी मुहब्बत में खो जाएंगे, बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी”
और लफ़्ज़-ए-‘तब’ क़ाफ़िया।
इस हाल में किसी सूरत मिसरे मुकम्मिल नहीं हो रहे थे।
रब्त भी क़ायम नहीं हो रहा था
एक दिन अचानक हमारे ज़ह्न ने मिसरे की रदीफ़ में कुछ तबदीली की और बात बन गई — दिल बहुत ख़ुश हुआ।
अब सलीम रज़ा सा. के इम्तिहान का बेचेनी भरा सिलसिला शुरू’अ हुआ।
हमनें उन्हें बताया: “रदीफ़ में थोड़ी तबदीली के बाद बात बन गई है।”
उन्होंने जानना चाहा — हमनें हस्बे रिवायत बताने से इंकार कर दिया।
और सलीम साहब को मिसरे में तबदीली के काम पर लगा दिया।
तक़रीबन एक हफ़्ता तक वो मिसरा’ तब्दील करते रहे, हम इंकार करते रहे,
साथ ही हिंट यानी इशारा भी देते रहे।
फिर वो दिन आया जिसका हमें इंतज़ार था —
सलीम रज़ा सा. हू ब हू वैसा मिसरा’ कहने में कामयाब हुए,
जैसा हमनें सोचा था।
इस ग़ज़ल का मतला’ कहना आसान नहीं था — लेकिन छोटी सी तबदीली से बात बन गई।
ये ग़ज़ल 'अवाम के लिए नहीं है — बल्कि शा’इरी के जानकार शु’अरा के लिए एहमियत रखती है।
इसके लिए सलीम रज़ा सा. मुबारकबाद के मुस्तह़िक़ हैं।
सलीम रज़ा सा. की ग़ज़लों की ज़ुबान उस मिट्टी में रची-बसी है जिसमें उनके अदबी श’ऊर ने आंखें खोली हैं।
उनकी अक्सर ग़ज़लों में बघेली बोली की मिठास बार-बार महसूस होती है —
इस बिना पर कहीं-कहीं हमें समझौता भी करना पड़ा है।
उनकी ग़ज़लों में जमालियात का रंग बहुत ख़ूबसूरती से उभर कर बार-बार सामने आता है,
इनकी ग़ज़लों में नग़मगी का एहसास ख़ूब पाया जाता है।
सलीम रज़ा सा. मुहब्बत को हर मसअले का हल तस्लीम करते हैं
‘अक़ीदत’ इनके यहाँ ज़ाती मु’आमला है,
हुब्बुल वतनी इनके ख़मीर का ख़ासा है।
सलीम रज़ा सा. को उनकी पहली काविश पर बहुत बहुत मुबारकबाद।
इंशा अल्लाह,
सलीम रज़ा रीवा का मजमू'आ-ए-कलाम “ख़यालों का परिंदा”
रीवा शह्र को अदबी दुनिया में एक मक़ाम दिलाने में कामयाब होगा।
असलम "माजिद" जबलपुरी
बानी-ए-बज़्म
बज़्म-ए-शबनम ओ ग़ज़नफ़र
2769/2 नज़ीराबाद, आनंद नगर,
शहीद अब्दुल हमीद वार्ड, जबलपुर, मध्यप्रदेश
📞 9329212629