Wednesday, August 20, 2025

कुछ देर बैठने दे मुझे अपनी छाँव में - ग़ज़ल सलीम रज़ा

 




कुछ देर बैठने दे मुझे अपनी छाँव में

ताक़त नहीं बची है मेरे हाथ-पाँव में

मैं थक चुका हूँ शहर की इस भीड़-भाड़ से

पहले ही ठीक-ठाक था मैं अपने गाँव में

अब कुछ नहीं बचा है के बाज़ी लगाऊँ मैं 

सब कुछ तो तूने जीत लिया एक दाँव में

जी भर के मुझको नाच-नचा ले ऐ ज़िंदगी

अब मैंने घुँघरू बाँध लिये अपने पाँव में 

हुस्न--सदा को लील गया शोर का हुजूम

कोयल की मीठी बोली गई काँव-काँव में

औरों के घर बसाए हैं जिसने तमाम उम्र

वो ख़ुद ठिकाना ढूँढ रहा अपने गाँव में

मुझको ग़मों की धूप ने झुलसा दियारज़ा

पल-भर न चैन पाया मैं रिश्तों की छाँव में

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کچھ دیر بیٹھنے دے مجھے اپنی چھاؤں میں

طاقت نہیں بچی ہے میرے ہاتھ پاؤں میں

میں تھک چکا ہوں شہر کی اس بھیڑ بھاڑ سے

پہلے ہی ٹھیک ٹھاک تھا میں اپنے گاؤں میں

اب کچھ نہیں بچا ہے کہ  بازی لگاؤں میں

سب کچھ تو تُو نے جیت لیا ایک داؤ میں

جی بھر کے مجھ کو ناچ نچا لے اے زندگی

اب میں نے گھنگرو باندھ لیے اپنے پاؤں میں

حسنِ صدا کو لے گیا شور کا ہجوم

کوئل کی میٹھی بولی گئی کاؤں کاؤں میں

اوروں کے گھر بسائے ہیں جس نے تمام عمر

وہ خود ٹھکانہ ڈھونڈ رہا اپنے گاؤں میں

مجھ کو غموں کی دھوپ نے جھلسا دیا ‘رضا’

پل بھر نہ چین پایا میں رشتوں کی چھاؤں میں


-———221/2121/1221/ 212——-

(बह्र)

मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन


15/07/25

हुस्न--सदा-ख़ूबसूरत आवाज़, हुजूम-भीड़ भाड़, ग़मों की धूप-परिशानिओं की तपिश,

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सलीम रज़ा रीवा 

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salim raza rewa -سلیم رضا ریو ا 


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