सलीम ‘रज़ा’ साहब की शा’इरी (क़मर साक़ी)
जिनका त’अल्लुक़ सूबा ए मध्यप्रदेश के रीवा शहर से है! ये शहर मध्यप्रदेश के बघेल खंड में आबाद है, तारीख़ी ओ तहक़ीक़ी नज़रियात से देखा जाए तो बघेल खंड का ये ख़ित्ता शे’रो अदब के मु’आमले में इस क़दर ख़ुश्क और बंजर रहा है के यहाँ शा'इरी के सतरंगी मौसम अगर किसी सूरत पहुंच भी जाएँ तो काले पड़ जाते हैं ! शायद यही वजह रही है के यहाँ से कभी भी शा'इरी के हवाले से कोई बड़ा नाम उभर कर मंज़र-ए-'आम पर नहीं आ सका!
इस ख़ित्ते की ख़ुश नसीबी है के गुज़िश्ता कुछ सालों से अज़ीज़म सलीम रज़ा साहब अपनी ख़ूबसूरत शा'इरी के हवाले से इस ख़ित्ते को ज़रख़ेज़ बनाने के लिए कोशां हैं!
सलीम रज़ा साहब ने सोशल मीडिया के ज़रिए से शे’रो सुख़न के वो तमाम रंग अख्ज़ किए जो आज की ग़ज़ल के लिए अज़ हद ज़रूरी थे! इसके अलावा आपने इंदौर, उज्जैन धार और जबलपुर जैसे शहरों से भी ख़ासा इस्तफ़ादा हासिल किया है! उनके अश’आर में कहीं हुब्बुल वतनी, कहीं हालाते हाज़िरा, ‘इश्क़, मोहब्बत और हिज्रो विसाल का ज़िक्र बहुत आसानी से मिल जाता है और कुछ हल्के फुल्के जिद्दत से मुज़ययन अश’आर भी उनके यहाँ कसरत से देखने को मिल जाते हैं ! मसलन....
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ख़राबी के नज़ारे उग रहे हैं
मुनाफ़े में ख़सारे उग रहे हैं
लबों पर खिल रही हैं तेरे कलियाँ
मिरी आँखों में तारे उग रहे हैं
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धूप का बिस्तर लगा कर सो गए
छाँव सिरहाने दबा कर सो गए
तंग थी चादर तो हमने यूँ किया
पाँव सीने से लगा कर सो गए
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लबों पर आ गए शबनम के क़तरे
ये कलियाँ इसलिए ख़ुश हो रही हैं
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अब तलक इन नहीफ़ आँखों में
सिर्फ़ तेरा बदन चमकता है
ख़यालों का परिंदा" सलीम रज़ा साहब की ग़ज़लों पर मुश्तमिल पहला मज्मू'आ है, मैं दु’आ गो हूँ के उनकी ये किताब अदबी दुनिया में ख़ूब मक़बूलियत हासिल करे. ....... .
क़मर साक़ी
धार मध्य प्रदेश