सलीम रज़ा ज़ौक़-ए-सलीम का शा’इर
सलीम रज़ा से मेरी मुलाक़ात बस एक बार हुई है वो भी बरसों पहले, लेकिन हम लोग फ़ोन और व्हाट्सएप के ज़रिए गुफ़्तगू इस क़दर करते रहे हैं कि ऐसा महसूस होता है कि वह हमारे बहुत ही क्लोज सर्किल के आदमी हैं। याद आता है दिल्ली की एक संस्था है जहाँ थोक के हिसाब से शु’अरा बुलाए जाते हैं. दो साल तक मैं भी गया फिर नहीं गया, मुझे लगता था कि मे'यार के बदले मिक़दार को फ़ौक़ियत दी जाती है । बहरहाल मुन्तज़िम हज़रात क़ाबिल-ए-तारीफ़ हैं कि इतना बड़ा प्रोग्राम करते हैं जिस में सैकड़ों शा’इर और शा’इरात की शमूलियत होती है । शा’इर ही सामे' और सामे' ही शा’इर. रीवा से सलीम रज़ा भी आए थे. वहां नफ़सा नफ़्सी का ‘आलम था मगर उन्होंने मुझे ढूंढ ही लिया . एक दो ग़ज़लें सुनाई और आख़िर में कहने लगे एक बहुत उम्दा क़िता हुआ है सफ़र के दौरान। आप भी सुनिए , इसी से अपनी बारी की शुरु’आत करूंगा . चेहरे पर बला का इत्मीनान और इंतेहाई मसर्रत के आसार थे वैसे ही जैसे कि इम्तिहान का रिज़ल्ट फ़र्स्ट क्लास फ़र्स्ट आने की उम्मीद पर होता है। मैंने एक क़ाफ़िये पर ध्यान दिलाया जिसे
जम्'अ-उल-जम्'अ बाँधा गया था । मेरे ध्यान दिलाने से सलीम रज़ा का सारा जोश ठंडा हो गया और वो शुक्रिया करते रहे कि रुसवा होने से बच गया । तब से उन्होंने शे’र कहते ही पोस्ट करने के फेर से ख़ुद को बचाना शुरू किया। और अश’आर हर ज़ाविए से दुरुस्त करने लगे, ख़ास तौर से आजकल के हालात को बड़ी ख़ूबसूरती और चाबुक दस्ती से अश’आर में पिरोते हैं।
सलीम रज़ा का त'अल्लुक़ उस नस्ल से है जो फ़ेसबुक वगैरह के वजूद में आने के बाद वजूद में आई और वही उनकी पहचान बनी. ये नस्ल इसलिए बड़ी अच्छी निकली क्योंकि हर कोई एक दूसरे की अदबी तौर से मदद के लिए तैयार रहता है.
“अब तो इतनी बहुतायत हो गई है शा’इरों की कि अल्लाह की पनाह”
बस इन नस्ल में ख़राबी है तो उजलत पसंदी की। इधर शे’र कहे नहीं कि पोस्ट कर दिए । इसलिए अक्सर कोई न कोई अ’रूज़ की या ज़बान बयान की ख़ामी रह जाती है। सलीम रज़ा ने फिर ऐसा नहीं किया और शे’रों को पकाया, कार्बाइड से नहीं पाल डाल कर । इसलिए इन शे’रों में मीठी पुख़्तगी आई । जहाँ कहीं दिक़्क़त आई सलाह मशविरा किया । ज़बान ओ बयान का मुताल'अ किया ।सलीम रज़ा मुसलसल लिखते रहे और निखरते रहे।
मैंने उन्हें एक ऐसा शख़्स पाया है, जो हर काम में दिलचस्पी, जुनून की हद तक लेते हैं । शा’इरी के अलावा भी वो दीगर फ़ुनून-ए-लतीफ़ा में उम्दा दख़्ल रखते हैं ।
आज कल शा’इरी में घर परिवार की बहुत तर्जुमानी होने लगी है, और होना भी चाहिए, क्योंकि अगर कुछ सचमुच में अपना है तो वह परिवार ही है । परिवार ही ख़ुशी का सोर्स है परिवार ही ग़मों का स्त्रोत है । यानी परिवार अहम है। माँ, बाप, बेटे, बेटी पर आज कल खूब अश’आर लिखे जा रहे हैं । हालांकि मैं इस का बहुत ज़ियादा मद्दाह नहीं रहा क्योंकि मेरा मानना है कि, इन रिश्तों पर अश’आर ए ग़ज़ल की गुंजाइश नहीं। इस का सबब ये है कि अगर ये ज़रूरी मज़ामीन होते तो ग़ालिब या मीर ने क्यों नहीं अब्बा, अम्मा, बेटे, बिटिया पर शे’र कहे? मतलब ये कि ऐसे सरोकार, ग़ज़ल के सरोकार नहीं ये नज़्म के हैं , मगर क्या कहें कि ऐसे अश’आर आज कल बहुत पसंद किए जाते हैं और ख़ूब तालियाँ बटोरते हैं। इसलिए हर कोई कुछ न कुछ कह कर ख़ुद को बड़ा जज़्बाती साबित करने पर तुला है । सलीम रज़ा भी जज़्बाती शख़्स हैं सो उन्होंने भी ऐसे जज़्बाती शे’र कहे हैं, और ख़ूब कहे हैं।
चंद अश’आर देखिए ---
जिस तरह से फूलों की डालियाँ महकती हैं
मेरे घर के आँगन में बेटियाँ महकती हैं
माँ ने जो खिलाईं थीं अपने प्यारे हाथों से
ज़ेहन में अभी तक वो रोटियाँ महकती हैं
हो गईं रज़ा रुख़्सत घर से बेटियाँ लेकिन
अब तलक निगाहों में डोलियाँ महकती हैं
जब उठा लेती है माँ हाथ दु’आओं के लिए
रास्ते से रज़ा तूफान भी टल जाता है
मेरे मौला लाज रख लेना मेरी
मेरी बिटिया अब सियानी हो गई
वो इश्क़िया शे’र भी कहते हैं ..
तमाम शहर तरसता है जिनसे मिलने को
‘रज़ा’ जी आप तो मिलकर उदास बैठे हैं
अपनी बात कहने के लिए वो फ़ारसी उर्दू के अल्फ़ाज़ और तराकीब ही नहीं बल्कि ज़रूरत पर वह हिंदी और अंग्रेज़ी अल्फ़ाज़ भी इस्ते'माल कर लेते हैं ताकि जो कहना चाहते हैं वह लोगों तक पहुंचे।
जिसके ख़यालों के "शावर" से मन को मैं नहलाता हूँ
उसकी ख़ुशबू पाकर दिल की अंगनाई मुस्काती है
चाँद सितारे क्यों मुझसे "पंगा" लेकर
मेरे पीछे डेरे-डेरे फिरते हैं
जब लफ़्ज़ों की चादर तान के सोता हूँ
शे’र मेरे "आज़ू-बाज़ू" सो जाते हैं
सुबहे-नव के क़रीब आते ही
अपना "अस्तित्व खो" रही है शब
वो जिसमें ग़म में जीने का हुनर "परफ़ेक्ट" होता है
मसाइब के अँधेरों में वही "रिफ़्लेक्ट" होता है
जिसे इंसान कहते हैं ख़ताओं का है वो पुतला
कहाँ दुनिया में कोई आदमी "परफ़ेक्ट" होता है
इसी तरह के अंग्रेज़ी क़वाफ़ी हैं मसलन सब्जेक्ट, इंजेक्ट वग़ैरा जिन्हें बड़ी ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया गया है।
कई ‘आम लफ़्ज़ की मिसालें देखिए
खुल्लम खुल्ला, रफू चक्कर, ड्रामे , चस्का , कचरा , एल्बम, चैन ओ सुकून
कुल मिला कर सलीम रज़ा अपनी शा’इरी के लिए बे हद जोश और जुनून का जज़्बा रखते हैं । इंटरनेट सेवी भी हैं लिहाज़ा हर माध्यम से अपनी ग़ज़लों को प्रचारित और प्रसारित करने का हुनर उन्हें मा’लूम है।
रदीफ़ अमूमन बड़ी संगीत पैदा करती हुई पसंद करते हैं, जैसा कि हम बुजुर्गों में देखते हैं । इस में दिक़्कत ये आ जाती है बहुत सी रदीफ़ इतनी सुनी सुनाई हैं कि लगता है ऐसा या इस से मिलता जुलता शे’र पढ़ चुके हैं । रज़ा साहिब को अब चाहिए कि अपनी ज़मीन तय करें और उस पर अपना फ़लक तानें और उस में चाँद तारे टाँगें।अधिकतर तरही ग़ज़लें कहने पर यकसानियत का एहसास होता है। इस से बचना होगा । और वो ऐसा कर सकते हैं। इनकी तमाम ग़ज़लों में नग़मगी है जिन में
फ़िक़्र की उड़ान काफी बुलंद है ।
रीवा जैसी अदबी तौर से आज ख़ुश्क हो चुकी ज़मीन से आब निचोड़ने का काम बहुत मेहनत तलब था, जिसे वो धीरे-धीरे करते रहे । आज उन का मज्मू'आ आ रहा है तो दिल को ख़ुशी हो रही है, और इसकी क़बूलियत की दु’आ के लिए हाथ उठे हुए हैं ।
Dr Mohd Azam
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