ख़ुश फ़िक्र शा'इर सलीम "रज़ा" रीवा
शे'री मजमू'आ "ख़यालों का परिन्दा" के शा'इर सलीम "रज़ा" का त'अल्लुक़ मध्यप्रदेश के शह्र रीवा से है, अदबी एतबार से मध्य प्रदेश भी एक मर्दम ख़ेज़ सूबा है, यहाँ शे'री अदब की आबयारी के लिये कई असातिज़ा-ए-फ़न की ख़िदमात क़ाबिले-ज़िक्र हैं,
उन्हीं में एक निहायत मो'तबर और मुस्तनिद नाम है उस्ताद असलम "माजिद" जबलपुरी साहब का है!
इन की ही आग़ोशे-तरबियत में सलीम रज़ा के फ़ितरी ज़ौक़ और तख़्लीक़ी ज़ह्न की परवरिश हुई, जिसने सलीम रज़ा को अस्रे हाज़िर की तहज़ीबो-अदब का तर्जुमान बना दिया।
सलीम रज़ा इसी रूमानी फ़ज़ा में दौरे-जदीद के मुरक्के खेंचने और ख़ुलूसो-मुहब्बत के पैकर तराशने में महारत हासिल कर, सुख़नवरों की फ़ेहरिस्त का हिस्सा बन गए।
सलीम रज़ा का शे'री मुस्व्वदा " ख़यालों का परिन्दा" मुझे मुहतर्मी फ़िरोज़ कमाल साहब ने 'इनायत फ़रमाया। इसे पढ़ने के बा'द मैंने पाया, गुलदस्ते को सलीम रज़ा ने त़रह़ त़रह़़ के ख़ुशरंग फूलों से सजाया है। इस से कलाम की जाज़बियत, और हुस्ने-मा'नी के साथ ग़ज़ल की लताफ़त नग़मगी की चाशनी और
सेहर-आफ़्रीनी,दिलो-दिमाग़ को मुतास्सिर करती है।
शा'इरी की ज़बान 'आम फ़हम, अन्दाज़े-बन्दिश पुर असर है। जिस में पैग़ामे-मुहब्बत और रंगे-इख़लास रौशन और नुमाया है। सलीम रज़ा की शा'इरी में रिवायती अनासिर नये रंग नये सांचे मे ढले मा'लूम होते हैं, जिसे उन की मुस्तहसिन कोशिश माना जाऐगा।
मैं दिन को रात कहूँ वो भी दिन को रात कहे
यूँ आँख मूंद के वो ऐ'तबार करता है
मैं जिस के प्यार को अब तक समझ नहीं पाया
वो रात - रात मेरा इन्तज़ार करता है
मुहब्बत का ऐ'तबार और उस की क़द्रो-मंज़िलत शा'इर की आला फ़ह्मी और ज़ह्नी बालीदगी का मज़हर है। उन की शा'इरी में नोक झोंक और तंज़ के तीर भी महारत की ख़ूबियों के मज़हर हैं।
शर्तों पर ही प्यार करोगे ऐसा क्या
तुम जीना दुश्वार करोगे ऐसा क्या
मआशरे के माज़ी और हाल पर खोऐ हुए जलालो-जमाल की टीस का लफ़्ज़ी तंज़ देखिए -
ख़ुद अपने आप को माज़ी से जोड़ने वाले
बता के तुझ में वो जाहो-जलाल है के नहीं
शा'इरी की ज़बान में लफ़्ज़ का बरमहल और बरजस्ता इस्ते'माल बड़ी एहमियत रखता है।
ये शिकायत 'आम है के, इस दौर की उर्दू शा'इरी सतही जज़्बात और एहसास की शा'इरी बन चुकी है, ये लफ़्ज़ों की हेरा फेरी और गोल मोल से रिवायती सब्जेक्ट पर मुनहसिर है,
शे'री अदब का तकाज़ा है ग्लोबल मसाइल, अख़्बाराती नमूने की पेशकश, लफ्ज़ियात के पैरहन में बयान किये जाएं,
नये फ़नकारों को इस त़रफ़ तवज्जो देना चाहिए, यही उम्मीद हम इस जवां फ़िक्र शा'इर से करें तो बेजा नहीं।
रिवायत के दायरे में रहते हुए ख़ूबसूरत शे'र निकाल लेना आसान नहीं। चन्द ख़ूबसूरत अश'आर देखें-
मैं ग़लत काम की तरग़ीब दिलाऊँ तुझको
यानी ख़ुद को ही गुनहगार करूँ मैं पहले
ख़ुशियों से कह दो शोर मचाएँ न इस क़दर
मेरे ग़मों को नींद लगी है अभी-अभी
सब ख़्वाहिशें लपेट के पेटी में रख चुके
उम्मीदें जो बची थीं वो खूँटी पे टाँग दीं
मेरे अफ़कार को वो हौसला बख़्शा है मौला ने
ख़यालों का परिंदा उड़ रहा है आसमानों में
अब भी है रग-रग में क़ाएम प्यार की ख़ुशबू ‘रज़ा’
क्या हुआ जो ज़िस्म के कपड़े पुराने हो गए
लगता है कुछ ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत में है कमी
जो उठ के जा रहे हैं तेरे दरमियाँ से लोग
मेरा मानना है शा'इरी शख़्सी भी होना चाहिए, अस्री भी, आफ़ाकी भी, शा'इरी सिर्फ़ दाख़लियत की सैरो-तफ़रीह नहीं, न महज़ समाजी मसाइल का मारूजी इज़हार,
दाख़िली और ख़ारजी कैफ़ियात का बयानिया फ़न्नी महारत के साथ होना चाहिए। सलीम रज़ा इस में खिलाड़ी बनने की सम्त रवाँ दवाँ नज़र आ रहे हैं।
इस फ़नकार की सच्चे जज्बात के साथ पज़ीराई होनी चाहिए
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डॉ. अज़ीज़ुल्लाह शीरानी
प्रोफ़ेसर शोबा-ए-उर्दू
मौलाना आज़ाद यूनिवर्सिटी
जोधपुर, राजस्थान